समय चलता रहा, रीवा बसता गया इतिहास गवाह है कि समय कभी किसी के लिए नहीं रुकता, लेकिन इसके निशान छोड़ता है – जैसे रीवा की मिट्टी में दबे किस्से, कहानियां और किले।

आज का रीवा – ऊंची इमारतें, चमचमाती सड़कें, एयरपोर्ट और फ्लाईओवर से सजा आधुनिक शहर – कभी सिर्फ घास के मैदानों, झरनों और जंगलों का विस्तार था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह शहर आखिर बसा कैसे? इसकी नींव किसने रखी?

नमक से शुरू हुई थी रीवा की कहानी

करीब 500 साल पहले यह इलाका प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर था, जहां कोल जनजाति के लोग रहते थे और जीवन का आधार शिकार, खेती और वनोपज हुआ करते थे। नमक उस दौर की सबसे कीमती वस्तु थी, जिसे "लमाना" जाति के व्यापारी गुजरात, सिंध और राजपूताना से लाते थे।

ये व्यापारी जब दबीहर, बिछिया और झिरिया नदियों के बीच स्थित भूमि पर विश्राम करते, तो वहीं से एक मंडी की शुरुआत हुई – जिसे बाद में “रीमा मंडी” कहा गया। यहीं से रीवा के शहर बनने की शुरुआत मानी जाती है।

जब रीवा की गाथा में राजाओं का प्रवेश हुआ

मुगल काल के संघर्षों के बीच अफगानों और मुगलों के युद्ध के समय रीवा ने कई अहम ऐतिहासिक क्षण देखे। बाद में शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह ने यहां एक गढ़ी बनवाई, पर वह भी लंबे समय तक नहीं टिके।

और फिर आए बघेला राजा विक्रमादित्य

1617 में मुगल सम्राट जहांगीर की अनुमति से रीमा मुकुंदपुर की जागीर पाकर विक्रमादित्य ने यहां अपनी राजधानी बसाने का निर्णय लिया। उन्होंने पुराने किले को विस्तार दिया, परकोटे बनवाए और यहीं से शुरू हुई रीवा नगर की असली यात्रा।

एक शहर जो लमानों के काफिलों से जन्मा और राजाओं के हाथों संवरता गया।

रीवा केवल एक शहर नहीं, यह उन व्यापारियों की याद है जिन्होंने नमक के बदले जीवन की कहानी लिखी। यह उन राजाओं की विरासत है, जिन्होंने इसे आकार दिया।

अगली बार जानेंगे – "रीवा" नाम की असली वजह क्या है

इतिहास के इस सफर में जुड़े रहिए, क्योंकि रीवा सिर्फ एक शहर नहीं, एक इतिहास है – जो आज भी साँस लेता है।