भारत का इतिहास वीरता, स्वाभिमान और बलिदान की अनेक गाथाओं से भरा हुआ है। जब 18वीं और 19वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने भारत के अधिकांश हिस्सों पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था, तब भी कुछ रियासतें ऐसी थीं जिन्होंने न केवल अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखा, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत के सामने झुकने से इनकार कर दिया। इन्हीं में से एक गौरवशाली नाम है रीवा रियासत का, जो मध्यप्रदेश के पूर्वी हिस्से में स्थित थी।

रीवा रियासत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

रीवा रियासत की स्थापना 1618 ईस्वी में हुई थी, जब बघेल वंश के शासक वीर विक्रमादित्य सिंह ने इसे राजधानी बनाया। यह वंश छत्रिय राजपूतों का था, जो अपने साहस, शौर्य और स्वतंत्र विचारों के लिए प्रसिद्ध था। रीवा के शासकों ने न केवल अपनी संस्कृति और परंपराओं को संरक्षित रखा, बल्कि समय-समय पर विदेशी आक्रमणों का भी डटकर मुकाबला किया।

अंग्रेजों के साथ संबंध लेकिन गुलामी नहीं

रीवा रियासत ने 19वीं शताब्दी में अंग्रेजों के साथ एक प्रकार की subsidiary alliance (सहायक संधि) की थी, जिसके तहत ब्रिटिश शासन को सैन्य और राजनीतिक सहयोग दिया गया। लेकिन यह संधि पूर्ण अधीनता नहीं थी। रीवा के शासकों ने अपनी आंतरिक स्वायत्तता को पूरी तरह बनाए रखा और ब्रिटिश गवर्नर जनरल की अनुमति के बिना किसी बाहरी आदेश को नहीं माना।

1857 की क्रांति में भूमिका

1857 की स्वतंत्रता संग्राम में जब पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा था, रीवा रियासत ने विद्रोहियों को खुलकर समर्थन नहीं दिया। इसका मुख्य कारण था — राजनीतिक सूझबूझ और जनता की सुरक्षा। रीवा के शासक रघुराज सिंह ने अंग्रेजों को समर्थन देकर यह सुनिश्चित किया कि रियासत को किसी प्रकार की सैन्य कार्रवाई का सामना न करना पड़े।

लेकिन यह निर्णय सिर्फ चतुराई नहीं था, बल्कि एक रणनीति थी जिससे रीवा की स्वतंत्रता बनी रही।

शिक्षा, कला और संस्कृति का केंद्र

रीवा रियासत ने न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता को बनाए रखा, बल्कि वह शिक्षा, कला और संगीत का भी प्रमुख केंद्र बनी। यह वही भूमि है जहां महान संगीतज्ञ तानसेन के समकालीन बिरजू बावरा ने संगीत को नई ऊंचाइयां दीं। रीवा के शासकों ने शिक्षा को बढ़ावा दिया, कई विद्यालय और संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की और जनता के कल्याण को प्राथमिकता दी।

ब्रिटिशों के लिए क्यों नहीं बनी ‘लक्ष्य’

रीवा की भौगोलिक स्थिति, राजनीतिक सूझबूझ और सामरिक संतुलन ऐसे कारक थे जिनकी वजह से अंग्रेजों ने इसे सीधे कब्जे में लेने की आवश्यकता नहीं समझी। यह रियासत सीमित सैन्य और आर्थिक महत्व की थी, और ब्रिटिशों को इसके सहयोग से मध्यभारत में स्थायित्व बनाए रखने में सुविधा होती थी।

स्वतंत्रता के बाद विलय

1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब रीवा रियासत ने बिना किसी टकराव के भारतीय संघ में शामिल होने का निर्णय लिया। इस प्रकार, रीवा वह रियासत बनी जो ब्रिटिश काल में अपनी अस्मिता और स्वायत्तता को बनाए रखने में सफल रही और फिर भारतीय गणराज्य का गरिमामयी हिस्सा बनी।

रीवा रियासत की कहानी सिर्फ एक रियासत की नहीं, बल्कि एक ऐसे स्वाभिमानी भारत की है जो विपरीत परिस्थितियों में भी झुका नहीं। रीवा के शासकों ने अपने प्रजाजनों की सुरक्षा, संस्कृति की रक्षा और राजनीतिक संतुलन के माध्यम से यह सिद्ध कर दिया कि स्वतंत्रता केवल तलवार से ही नहीं, बल्कि बुद्धिमत्ता और धैर्य से भी प्राप्त की जा सकती है।